Sunday, 1 September 2013

ईधर घुप्प अन्धेरा- हाथ को हाथ न दिखे, चेहरा तो दूर की बात, और उधर तुम्हारी घुटी हुई चुप्पी, घरगराती साँस  और सूखे पत्तों पर रेंगते कीड़ों की महीन सी लगातार वेधती सी आवाज- और इसी दरम्यान एक तेज कोलाहल का फट पड़ना- जी तो लगा मुँह में ही आ गया- न कुछ सोचने में बना,  न करने में- काठ मार गया, जड़ हो चुका था,अंदेरा ज्यों का त्यों पर इस घबड़ाहट में कई गुना स्याह लगता , काट खाने दौड़ता लहू को जमा चुका था। अपने बारे में सोच भी नहीं पाया की तुम्हारे होने न होने की बात, तुम्हरी यह बेतरतीब चुप्पी, यह सन्नटा और इनायास उपजा यह कोलाहल।
बाद में, बहुत बाद में समझ पाया वह मेरे ही अन्दर का कोलाहल था जो केवल मुझे ही सुनाई दिया था और किसी को शायद नहीं, शायद तुमने तो सुना ही नहीं होगा कभी भी वैसा हल्लाबोल कोलाहल।
तुम्हारा भ्रम है कि केवल तुमने सुना। तुम्हारे अन्दर का कोलाहल तुम्हें तब सुनाई पड़ा जब वहाँ और कुछ भी न देखने को था न सुनने को। पर वह कोलाहल दुनिया ने बहुत पहले सुन लिया था। तुम्हे चेताया भी था। पर तुम गंभीर तंद्रा में थे,मदहोश थे।प्रमाद में थे, मदमस्त थे।
होश मे रहना सीखो, मैं तो यही कहूँगा।

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