Tuesday, 9 April 2013

रौशनी का हिसाब लेने के पहले, दिये का बूता कूता तो होता,
दिये में दिया था सनेह ही कितना, बाती में बँट भी कितने कम थे

जो न थकी होती हथेलियाँ तुम्हारी, कस कर दिये होते बँट दो चार और
जो रूके न होते तुम, टपकाया होता सनेह उर का, बूँद दो चार और

तो आज दिये से ये शिकायत न होती, मन ही मन यह कसक न रहती
दिया तुमहारा, बाती भी दी थी, बिना बँट,सनेह, रौशन कैसे यह रहती

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