1982 के आस पास की बात है। मैं वकालत के पेशे में प्रवेश का इच्छुक था। जिला मुख्यालय में कस्बे की कचहरी ही उपलबद्ध विकल्प थी। सीनियर खोज रहा था। एक यदुवंशी ५५ एक साल के पी पी थे। देहाती वेशभूषा। राजनैतिक चरित्र। समाजवादी टाईप। अक्खड़। मुंहफट। पर कचहरी में व्यापक स्वीकार्यता थी। प्रांत के नेता, मंत्री आते रहते थे। डी एम, एस पी भी आते रहते, उनको बुलाते रहते। बार, बेंच में भी दब दबा।
उन्होंने बताया कि सरकारी लोग सक्षम लोगों से अपना काम निकलवाने, समुचित सलाह के लिए आपकी बड़ाई करते है। आपको फुलाते है। फूलना मत।
और सरकारी लोगों के आने जाने की धमक से आम आदमी आपसे दूर हो जाएगा , डर जायेगा, आपको भी हाकिम ही समझने लगेगा, अपनी बात डर के मारे कह ही नहीं सकेगा। उन्होंने बताया कि गांव देहात का आदमी साहबी ठाठ से घबराता है कि साहब है न जाने कौन सी बात का बुरा मान कहां फॅसा दे। बहुत डरता है।
उन्होंने साहबी रंगबाजी से दूर रहने को कहा। आम लोगों से तब भी संवाद करते रहने की सलाह दी जब ऐसा करना सम्भव न हो। उन्होंने संवाद के लिए किसी बिचौलिए को बीच में न लाने की बात समझाई।
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