Monday, 19 August 2019

गाँव से मेरा रिश्ता

यह पोस्ट लिखते हुए न तो मैं गांव के प्रति हिंसक हो रहा हूँ , न शहर के प्रति उदार।
शहरों में बस रहा आजकल जन मानस भी तो कभी न कभी, कहीं न कहीं, इन गाँवों से जुड़ा है। मैं और मेरी जड़ें भी किसी गाँव मे ही मिलेगी। मुझे इन गाँवों से मातृ भाव का जुड़ाव है, पितृ भाव का संकोच, भातृ भाव की प्रतियोगिता और पुत्र भाव की चिंता। अपनापन है अतः कभी कभी उबल पड़ता हूँ, फूट जाता हूँ
क्षमा करेंगें।
आज जो विकृतियाँ गाँवों में है वे ही सज संवर कर, शहरों में भी होगी ही।
में केवल इस बात से चिंतित हूँ कि भारत के गाँव, हमारे आपके गाँव मे एक प्रकार की जड़ता है, गति-शून्यता है, परिवर्तन के प्रति उदासीनता है। गांवों में जमीनी यथास्थितिवाद है।
जब हम गाँव मे होते है तो हमलोग सभ्य समाज की तुलना में बहुत धीरे धीरे चल रहे होते हैं। हम वास्तव में बहुत पीछे है, या पीछे छूट गये है या हमें पीछे छोड़ दिया गया है।
यह जानना और समझना हमारे लिए कितना भी कठिन और कष्टकारी क्यों न हो, हमे समझना ही होगा।
किसी प्राचीन ब्यवस्था के अवशेषों के नाम और हम अपना वर्तमान नष्ट नहीं कर सकते।
गौरवशाली इतिहास, यदि हो तो भी, कोई अमृत नहीं, कोई रामबाण दवा नहीं, जिसे पिला कर मर रहे वर्तमान को जिंदा रखा जा सके।
निष्प्राण हो रहे वर्तमान को वर्तमान के अपने पुरुषार्थ से ही बचाया जा सकता है।
भूत तो भूत ही रहेगा। इतिहास तो इतिहास ही रहेगा। वह वर्तमान या भविष्य नहीं हो सकता।इतिहास हर गुजर रहे पल के साथ और गहराई में चला जा रहा है।
इतिहास वर्तमान के लिये नींव भर हो सकता है, उससे आगे कुछ भी नहीं।
नींव के पत्थरों को निकाल निकाल कर दिखाने से वर्तमान का महल नहीं खड़ा किया जा सकता। खामखाह नींव खोदते रहियेगा ति वर्तमान तो हाथ से जायेगा ही, पुरानी नींव भी समाप्त हो जायेगी।
भारतीय गांवों में दादा परदादा पुरखों के जमाने की गाथाएँ वर्तमान को घुन की तरह लगी जा रही है, खाये जा रही है।इतिहास वर्तमान और साथ में भविष्य को भी बाँधे जा रहा है। इतिहास कितना भी भब्य हो वह रहेगा इतिहास ही।
मिस्र के पिरामिड हो या नालंदा के खंडहर - वे न तो वर्तमान हो सकते , न वर्तमान को गति दे सकते, वे वर्तमान के नियंता नहीं हो सकते । वे बर्तमान के लिये प्रेरणा या लक्ष्य या गंतब्य नहीं हो सकते ।
आर्यभट्ट, वराहमिहिर, चरक, सुश्रुत, गर्ग, बुद्ध, महावीर, कन्फ्यूशियस, वाल्टेयर, रूसो, , एरिस्टोटल, ह्वेनसांग, फाह्यान, इब्नबतूता, आर्कमिडीज, न्यूटन, आइंस्टाइन, कालिदास, शेक्सपियर -ये सब कितने भी महान, पूज्य क्यों न हो, वर्तमान की परिधि नहीं हो सकते।
जो समाज इन्हीं में से किसी एक को अपना केंद्र मान कर वर्तमान या भविष्य की रेखा या वृत्त खींचने की गलती करता है, वह एक सर्व कालिक भूल कर रहा है
इतिहास जे प्रति ममता त्यागना ही पड़ेगी।इतिहास त्यागने की जरूरत नहीं।इतिहास तो त्यागा भी नही जा सकता।
मेरे और आपके छोड़ देने से, त्याग देने से, मेरे और आपके इतिहास से मेरा और आपका पिंड थोड़े ही छूट जायेगा।
बंदरिया भी अंततः मरे हुए बच्चे को फेंक देती है। ममता त्यागनी ही पड़ती है।
बेवजह इतिहास से ममता प्रवंचना को जन्म देती है।
भारत का ग्रामीण परिवेश गौरवशाली इतिहास की नशे की गोली में अभी भी बेसुध है। उसे न वर्तमान की चिन्ता है, न भविष्य की कोई योजना है।
गाँव से मेरा रिश्ता इसी चिंता को लेकर रोज और गहरा होते जा रहा है।
ॐ शान्ति !!

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