औरंगाबाद , बिहार , में जिन दिनों मैं गुंथा जा रहा था , मेरी मिटटी को बनाया जा रहा था ; उन्हीं दिनों मैंने पहली बार जाना कि मट्टी की सोंधी महक , सुगन्ध कैसी होती है।
मैं कलकत्ता में जन्मा था। वहाँ मट्टी के दर्शन तक भी नहीं होते थे। उस वक्त भी नहीं ,होते थे , आज भी नहीं होते। हुगली नदी की मिटटी छोटी छोटी टोकरियों में वहाँ उस वक्त लगभग पचास साल पहले बिका करती थी। अब तो वह भी कम हो गई है। कलकत्ता पूरा का पूरा कंक्रीट का जंगल था ,है और आगे जाने किस और भी वीभत्स रूप को प्राप्त करेगा।
डलहौजी के पार इडेन गार्डन के आस पास का इलाका मैदान इलाका कहलाता था। वही हवा ,धूप , घास , वृक्ष दीखते थे। .सुबह के समय इन मैदानों में मॉर्निंग वॉक करने वालों की खासी तादाद जुटती है। तब भी जुटती है। अब कुछ अधिक ही हो गई है। समूहों में अभी भी नई उम्र के बच्चे क्रिकेट आदि खेल खेलने को इकट्ठा होते है। तब भी हुआ करते थे। तब खेलों का उतना उन्नत एलोक्ट्रोनिक रूप नहीं था। अब है। यांत्रिक रूप। बहुत फ़ास्ट। उस वक्त भी था , पर अपने वक्त के हिसाब से था। उस वक्त वहाँ की मिक्स भीड़ थी।
अब तो कलकत्ते के बड़े लोगों ने नये इलाके खोज लिए है। पर उस वक्त यह मैदान इलाका , इसके प्लेग्राउंड ,यहाँ की पान , पुचका , भेल पूरी ,झाल मुड़ी ,आइस क्रीम , चनाजोर , सॉफ्ट ड्रिंक, उसकी आड़ में बिकता हॉट ड्रिंक आदि और पैसे वालों की सायंकालीन देर रात तक की भीड़ के लिये प्रसिद्ध , कुछ कुछ कुख्यात था।
इसी मैदान के हिस्से में विख्यात विक्टोरिया मेमोरियल की भब्य इमारत है। अब इसका उपयोग एक म्यूजियम की तरह किया जा रहा है। इसी मैदान के एक तरफ नमी गिरामी कम्पनियों की आफिसों वाली इमारतें है। कुछ अंग्रेजों के जमाने की। कलकत्ते की नामी होटलें , कुछ सिनेमा हॉल भी इसी और हैं।
इसी मैदान के एक कोने में क्लबों के हरे रंग के झोपड़ीनुमा क्लब रूम है , उनके अस्थायी कब्जे के प्लेग्राउंड है ,सब कुछ अस्थाई सा , कोई खास पक्का निर्माण इन क्लबों में नहीं था। कलकत्ते के नवयुवकों का एक वर्ग इन क्लबों से जुड़ा था।
सन ७० के आसपास फुटबाल और क्रिकेट के खेलों के क्लब अधिक संगठित थे। गोल्फ , और रेस , ये अधिक संगठित खेल थे , पैसा बहुत अधिक होता या लगता था , बड़े लोगो का भब्य खेल , भब्य क्लब , वि आई पि कल्चर।
अब तो बहुत तरह के खेलों के क्लब स्थापित हो चुके हैं।
पूर्वी भारत में खेलों के सन्दर्भ मेंजैसा उत्साह कलकत्ते में देखने को मिलता है वह दुर्लभ है।
मैं कलकत्ता में जन्मा था। वहाँ मट्टी के दर्शन तक भी नहीं होते थे। उस वक्त भी नहीं ,होते थे , आज भी नहीं होते। हुगली नदी की मिटटी छोटी छोटी टोकरियों में वहाँ उस वक्त लगभग पचास साल पहले बिका करती थी। अब तो वह भी कम हो गई है। कलकत्ता पूरा का पूरा कंक्रीट का जंगल था ,है और आगे जाने किस और भी वीभत्स रूप को प्राप्त करेगा।
डलहौजी के पार इडेन गार्डन के आस पास का इलाका मैदान इलाका कहलाता था। वही हवा ,धूप , घास , वृक्ष दीखते थे। .सुबह के समय इन मैदानों में मॉर्निंग वॉक करने वालों की खासी तादाद जुटती है। तब भी जुटती है। अब कुछ अधिक ही हो गई है। समूहों में अभी भी नई उम्र के बच्चे क्रिकेट आदि खेल खेलने को इकट्ठा होते है। तब भी हुआ करते थे। तब खेलों का उतना उन्नत एलोक्ट्रोनिक रूप नहीं था। अब है। यांत्रिक रूप। बहुत फ़ास्ट। उस वक्त भी था , पर अपने वक्त के हिसाब से था। उस वक्त वहाँ की मिक्स भीड़ थी।
अब तो कलकत्ते के बड़े लोगों ने नये इलाके खोज लिए है। पर उस वक्त यह मैदान इलाका , इसके प्लेग्राउंड ,यहाँ की पान , पुचका , भेल पूरी ,झाल मुड़ी ,आइस क्रीम , चनाजोर , सॉफ्ट ड्रिंक, उसकी आड़ में बिकता हॉट ड्रिंक आदि और पैसे वालों की सायंकालीन देर रात तक की भीड़ के लिये प्रसिद्ध , कुछ कुछ कुख्यात था।
इसी मैदान के हिस्से में विख्यात विक्टोरिया मेमोरियल की भब्य इमारत है। अब इसका उपयोग एक म्यूजियम की तरह किया जा रहा है। इसी मैदान के एक तरफ नमी गिरामी कम्पनियों की आफिसों वाली इमारतें है। कुछ अंग्रेजों के जमाने की। कलकत्ते की नामी होटलें , कुछ सिनेमा हॉल भी इसी और हैं।
इसी मैदान के एक कोने में क्लबों के हरे रंग के झोपड़ीनुमा क्लब रूम है , उनके अस्थायी कब्जे के प्लेग्राउंड है ,सब कुछ अस्थाई सा , कोई खास पक्का निर्माण इन क्लबों में नहीं था। कलकत्ते के नवयुवकों का एक वर्ग इन क्लबों से जुड़ा था।
सन ७० के आसपास फुटबाल और क्रिकेट के खेलों के क्लब अधिक संगठित थे। गोल्फ , और रेस , ये अधिक संगठित खेल थे , पैसा बहुत अधिक होता या लगता था , बड़े लोगो का भब्य खेल , भब्य क्लब , वि आई पि कल्चर।
अब तो बहुत तरह के खेलों के क्लब स्थापित हो चुके हैं।
पूर्वी भारत में खेलों के सन्दर्भ मेंजैसा उत्साह कलकत्ते में देखने को मिलता है वह दुर्लभ है।
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