Sunday, 17 March 2013

"
मैं एक उपन्यास हूँ
एकांकी नहीं
महाकाब्य बनना पड़ा है
नवगीत नहीं बना
मतलब जानते हो
...
मैं केवल मुस्कुराता ही नहीं
रोता भी हूँ
आश ही नहीं
निराश भी होना पड़ा है
यह भी जान लो

प्रकाश ही नहीं है केवल
अंधकार भी हे
शगुन ही नहीं होते हरपल
अपशकुन भी झेलता हू
इन सब को एक साथ देखो

सब कुछ हर वक्त बदलता है
ठहरता कुछ नहीं
केवल बनता ही नहीं
बिगड़ता भी है
फिर भी सर्वनाश कभी नहीं होगा।

केवल टूटता ही नहीं
जुटता भी रहता है
एक एक जोड़ जोड़ता
महल दर महल बनते
नगर बसते चले जाते हैं

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