हर सुबह, काँपती, सुबकती थकी सी, दिये कि लौ क्या कहती है
और क्या कहती है, जीर्ण शीर्ण रात भर जली, बाती की काया।
अब और नहीं, घने अंधेरे मैं हो रहै खेल को, चुपचाप झेल सकती
कहा बाती ने शर्म से सिर झुका, जलायी थी काया क्या इसी के लिये।
अरमाँ था, रौशनी बिखेरूँगीँ चारों और,अंधेरे से लडने की थी चाहत
बाती कहती, काश इस हौसले को सलाम कर पाती,पर अब हूँ आहत।
लोगों ने मेरे साये में बैठकैं की,मैं निःशब्द, और... मेरी ही काया से खेला
बाती से मशाल बना डाला या जला ली थी, कैसा खुदगर्ज खेल खेला।
मेरी खुदी जलाई, मुझे जलाया, रूलाया भी, फिर घर- गाँव जला डाला
यह सब मेरे वजह कर हुआ, मेरे सामने हुआ , मुझे ही उन्होनें जला डाला।
अब और नहीं, घने अंधेरे मैं हो रहै खेल को, चुपचाप झेल सकती
कहा बाती ने शर्म से सिर झुका, जलायी थी काया क्या इसी के लिये
और क्या कहती है, जीर्ण शीर्ण रात भर जली, बाती की काया।
अब और नहीं, घने अंधेरे मैं हो रहै खेल को, चुपचाप झेल सकती
कहा बाती ने शर्म से सिर झुका, जलायी थी काया क्या इसी के लिये।
अरमाँ था, रौशनी बिखेरूँगीँ चारों और,अंधेरे से लडने की थी चाहत
बाती कहती, काश इस हौसले को सलाम कर पाती,पर अब हूँ आहत।
लोगों ने मेरे साये में बैठकैं की,मैं निःशब्द, और... मेरी ही काया से खेला
बाती से मशाल बना डाला या जला ली थी, कैसा खुदगर्ज खेल खेला।
मेरी खुदी जलाई, मुझे जलाया, रूलाया भी, फिर घर- गाँव जला डाला
यह सब मेरे वजह कर हुआ, मेरे सामने हुआ , मुझे ही उन्होनें जला डाला।
अब और नहीं, घने अंधेरे मैं हो रहै खेल को, चुपचाप झेल सकती
कहा बाती ने शर्म से सिर झुका, जलायी थी काया क्या इसी के लिये
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