Friday, 7 June 2019

मनुष्य ने समाज का निर्माण ही स्वयं अपनी ही स्वतंत्रता के नियंत्रण के लिये किया था.शुद्ध स्वतंत्रता की एक संगठित समाज में तो कल्पना ही नहीं की जा सकती . समाज में एक व्यक्ति कोदुसरे व्यक्ति के लिये अपनी स्वतंत्रता का अंश त्याग करना ही पड़ता है .जो व्यक्ति दुसरे के लिये अपनी स्वतंत्रता का त्याग नहीं कर सकता वह अपनी भी स्वतंत्रता का उपभोग नहीं कर सकता .भारतीय ग्रामों में जो सरलता दिखती है वह अज्ञान ,निरक्षरता आदि के कारण है , भय की परछाई है .भारतीय ग्रामीण परिवेश में जो सहजता दिखती है वह विवशता है ,विकल्पहीनता है निराशा है ,जड़ता है .सरलता ,सहजता  अथवा स्वच्छता के आडम्बर युक्त शब्दों से इन्हें ढकना , केवल कुटिलता है . सम्पूर्ण विश्व जहाँ संचार क्रांतिमय हो गया है ,जहाँ शिक्षा के नये नये तरीके खोजे जा चुके हैं उस दुनिया में यदि पूरा का पूरा गाँव बर्षों से बिना बिजली ,सडक ,डाक्टरी सुविधा,स्कुल के हो ,पूरा गाँव निरक्षर हो ,पुरे गाँव के लिये अख़बार का कोई मतलब ही नहीं हो , किताबे जी पुरेगंव के लिये ब्यर्थ हो वहाँ सहजता ,सरलता की बात करना बेमानी है .क्या शिक्षा इतनी कुटिल है .भारतीय गांवों को सिक्षा से या सिक्षा ,शिक्षक ,डाक्टर आदि को गांवों से ऐसी चिढ क्यों .
गाँव में अभी भी अच्छे भले किसान ,ब्यापारी ,कारीगर मिल जायेंगें इनमे से बहुत से लोग आज भी कहते मिल जायेंगें - पढने से क्या होता है .
आज भी "पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ -पंडित भया न कोय का गन करते हुए लोग पढने -पढ़ाने से भागते हैं .
गाँव में न पढने की परम्परा है न पढ़ाने की .पढने वाला बच्चा समूह से कट जाता है .पढ़ाने की कोशिश करने वाला तो छोटे -बड़े दोनों के ही समूह से कट जाता है .
ऐसा नहीं है कि मैं भारत के ग्रामीण परिवेश से कोई पूर्वाग्रह रखता हूँ .पर अपने दोषों को छिपा लेने से वे दोष दूर तो होने से रहे .उन दोषों को छिपा  कर कहाँ ले जाऊंगा .
शशी श्यामला धरती कह कर , गा कर तो गांवों की पेय जल,शिक्षा , चिकित्सा ,आवागमन ,रोजगार की समस्या दूर तो होगी नहीं .
गड्ढों  में से पशु की तरह मुँह लगा कर पानी पीते    मनुष्यों को देखलेने के बादभी मैं उस दृश्य को भूल जाऊं ?
भेड़ों के समूह के बीच एक गड़ेरिये का चित्रण करते समय उसका भेड़ के प्रति विवशता से भरा प्रेम को कितने ही प्रशंसनीय भाव से लिख डालूं ,पर क्या उस गड़ेरिये की पीढ़ी दर पीढ़ी की अभावग्रस्त जिन्दगी इससे बदल जाएगी .
क्या गड़ेरिये की सहजता ,सरलता वास्तविक है .
पुरा का पूरा गाँव आज भी निरक्षर है .पूरा गाँव आज भी ओझा गुनी के कब्जे में है .
किसी स्त्री पर डायन का आरोप लगा ,उसे नग्न कर ,विष्ठा पिलाने वाला ग्रामीण परिवेश क्या मूढ़ता के अधिक करीब नहीं है ?.
अपना बांझपन दूर करने के लिये दुसरे के बच्चों की हत्या करने की प्रेरणा देने वाला परिवेश ,सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिये बलात्कार करने का सन्देश देने वाला परिवेश और इन तरह की दुष्प्रेरणा, अमानुषिक सन्देश से प्रेरित होने वाले समाज को क्यावास्तव में मूढ़ नहीं कहा जाना चाहिए ?.मैं स्वयं उसी परिवेश से हूँ . क्या मैं चैतन्य हूँ ?
किसी खेत में निश्चिन्त बेफिक्र घास काट रही बाला के नख शिख सौन्दर्य  वर्णन कर देने से मेरी कबी कला अथवा चित्र कला भले मुखर या सुधर जाये ,पर उसके घास की टोकरी और उसका हसुआ उठा कर ले जाना ,छोटी सी बालिका को भद्दी भद्दी गलियां देना ,और फिर घास की टोकरी या खुरपी या हसुआ वापस लेने के बदले उसे आत्म समर्पण कर देने के लिये विवश कर देना - क्या यह सत्य नहीं है ?
आप इसका चित्रण क्यों नहीं करते .यह सब लिखते समय मेरी लेखनी क्यों रुक जाती है .
मैं यह सब लिख कर न तो गाँव के प्रति हिंसक हो रहा  हूँ,न मेरा ऐसा कोस आशय  है .मैं शहरों केप्रति उदार भी नहीं हूँ .शरोंमें आज रह रहा जनमानस भी कभी न कभी ,कहीं न कहीं गाँवों से ही जुड़ा हुआ था .ये शहर तो बाद में बसे हैं . 
मै आज के , २०१४ के गाँव की बातकर रहा हूँ .यहसब कपोलकल्पित नहीं है .
हमारे गावों की दुखती रग है ,बीमार आत्मा है , जिसे शस्य  -श्यामला -निर्मल -सहज और न जाने क्या क्या कह कर आज तक हम सब भारतीय ग्रामीण परिवेश के साथ मजाक करते रहे हैं.
मैनें केवल यह लिख भर है की गांवों में आज भी जड़ता है ,गतिशुन्यता है ,परिवर्तन के प्रति उदासीनता है ,उत्साह नहीं है . गांवों में जमीनी यथास्थितिवाद है ,हम लोग सभी समाज की गति से बहुत अधिक धीरे घिसट भर रहे हैं ,वे उड़ रहे हैं और हम घिसट रहे हैं ,रेंग रहे है .
यह हमें क्यों नहीं समझ में आता ?
किसी प्राचीन ब्यवस्था के नाम पर ,या मोह में हम अपना वर्तमान तथा भविष्य क्यों नष्ट कर रहे हैं?
हम यह नहीं कर सकते !!!!!

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