Sunday, 12 August 2012

कैसा हिसाब- किताब- कुछ तो है ही नहीं

अपनी बात आपसे कहूँ केसेऐ हर बात जो कहता हूँ ,वह सोची-समझी होती है ।जो बातें वास्तव में होती है वह कह नहीं पाता हूँ और जो कह पाता हूँ वह होती नहीं है।जो है वह और जो दिखती है वह- दोनों दो है। समझ में नहीं आता ऐसा क्यों- क्या है। दोनों कट बीच सामंजस्य कैसे स्थापीत करूँ। एक को साधता हूँ तो दूसरा दूर हो जाता है। ज्यों-ज्यों सत्य को साधने की कोशिश करता हूँ वह सच के मूल्यों के अलग दीखता है। अजीब सी बात है, सच के मूल्य सच को काँट- छाँट कर बने है। बालक जब जन्म लेता है वह सत्य के एकदम करीब होता है,क्योंकि सच का उस पर कोई आवरण ही नहीं होता। वह एकदम नंगा होता है।अनाम होता है। क्योंकि वह नंगा है इसलिये उसके पास छिपाने के लिये कुछ भी नहीं। वह अनाम है इसलियेउसे ईर्ष्या और द्वेष के लिये भी कुछ नहीं। दुनिया में आते ही सच पर भी आवरण पड़ जाते हैं- उसे ईर्ष्या-द्वेष के साथ जीने के लिये बाध्य कर दिया जाता है। बस यहीं से सारा घालमेल शुरू हो जाता है। सत्य की परिभाषा गढ़ी जाने लगती है। आईये देखें-यह कैसे होता है। जब मैं मर चुका होता हूँ तब मैं फिर एक लाश भर हो जाता हूँ और फिर मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुझे आग में जला दिया जाता है या अधेरी कब्र में दफना दिया जाता है।मरते के साथ मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुझे ठंडे पानी से नहलाया जाये या गर्म पानी से। जब मैं पैदा हुआ था तब भी मेरे पास कोई पाकेट नहीं थी। पाकेट में ही न पर्स रखते हैं ।जब पाकेट ही नहीं तो पर्स भी नहीं और जब पाकेट और पर्स दोनों ही नहीं तो पर्स में रखने की ईच्छा भी नहीं। इसी प्रकार जब मैं लाश हो गया होता तब भी मेरे कफन में कोई पाकेट नहीं होगी। कफन भी नहीं हो तब भी मुझे क्या फर्क,नंगा तो मै था ही अब भी नंगा हूँ। जब मैं पेदा हुआ तब मुझे कोई शरम नहीं आई और जब मै मर गया होता हूँ तब भी मुझै कोई शर्म नहीं। यह शर्म या हया की जो बात आप करते हैं यही तो सच के उपर डाल दी गई चादर है। सचमुच वे कितने भाग्यशाली है जो एकदम नंगे रहने का साहस कार पाते है ।जो नंगा हो गया उसे किसी संग्रह की आवस्यकता ही नहीं है क्योंकि उसके पास पाकेट वाले कपड़े ही नहीं है, पर्स नहीं है,बक्सा नहीं है , बैक नहीं है , खाते नहीं है , मुनीम नहीं है और इसलिये नंगे को लोभ -असत्य की जरुरत नहीं । जो नंगा हुआ वह लोभ से परे हुआ और जो लोभ से परे हुआ वह अहंकार से परे हुआ। नंगा होने के बाद क्रोध का क्या काम।नंगे होने का एक ओर बड़ा फायदा है-आपकी आँखों मै भी कामदेवता का आगमन हुआ नहीं कि आपका नंगा शरीर आपके लाख छुपाये भी आपके अनदर उढ रहे काम आवेग की चुगली कर ही डालेगा। दिल-दिमाग में कहीं भी काम बसा नहीं कि शरीर में हलचल शूरू हुई और शरीर में हलचल शुरू हुई तो नंगा चूँकि मैं हूँ इसलियेुह हलचल आम हो जायेगी। सचमुच नंगापन काम पर विजय पाने का एक साधन तो है ही। और इसी काम पर पर्दा डालने का काम हम और आप कभी पत्तों से करते हैं, कभी कपड़ों से करते हैं, कभी धोती से तो कभी लंगोठी से- पता नहीं कैसे कैसे करते हैं। जितने भी आचरण हम और आप ओढ़ते हैं वह सब अपने अन्दर-बाहर के सत्य को छिपाने के लिये ढोंग रचते हैं।लोभ को छिपाने के लिये हमने दान का ढोंग रचा है। अहंकार को छिपाने के लिये विनम्रता का ढोंग , क्रोध को छिपाने के लिये प्रेम का ढोंग। हमने क्रोध शब्द को मइनस में डालकर प्रेम की रचना कर डाली। तापक्रम + में हो या माइनस में, है तो तापक्रम ही। उसी तरह प्रेम प्लस साइड हो या माइनस साइड- वह क्रोध का ही दूसरा रूप है। और जो नंगा है उसे न प्रे म की आवश्यकता है न क्रोध की। इसी प्रकार दान इसी लोभ का विलोम है। लोभ-दान, लोभ-त्याग, लोभ-अर्थ, लोभ-मोक्ष सब एक ही है, बाकी सारा सब्द जाल, आवेश के घनात्मक अथवा ऋणात्मक मात्र होने से पड़े ावरण को भुनाने का हमारा प्रयास। जो नंगा हो गया उसे न दान की जरूरत, न लोभ-त्याग की, न ही मोक्ष की। गांधी, ईशा मसीह,बुद्ध, महावीर, ऋषभदेव,बाहुबली,नागा सब नंगे हो चुके थे, इन्हें किसी आवरण की आवस्यकता नहीं रह गई थी अतएव इन्होंने जो कहा वह सत्य के बिल्कुल करीब था, सभी के करीब था पर मैं तो आपादमस्तक आवरण से ढका हूँ, सच से कोई सरोकार नहीं, जाने कब नंगा होने का साहे जुटा पाउँगा। वैसे एक बात कहूँ, यदि एक साथ और स्थाई रूप से आप नंगे नहीं हो सकते तब भी नंगे होने की आदत डालने का प्रयास तो आप-हम कर ही सकते हैं।टूकड़ों में नंगे होइये, समय पर नंगे होईये,आखिर नंगे होने का संस्कार तो पैदा किजीये। वैसे सच कहूँ, तो हम और आप सब नंगे होते हैं,बाथरुम में होते हैं, निवृति के समय होते हैं, प्रवृति के समय होते हैं, केवल अपने इस नंगेपन के स्वीकारते नहीं। जिस दिन हम इस नंगेपन को स्वीकार करने का साहस जुटा लेंगें उसी दिन और समय हम और आप सत्य के करीभ सार्थक रुप से पहुँच जायेंगें। काम बड़े काम की चीज है, यह बड़े -बड़े को नंगा होने को विवश कर देता है। काम की आंधी में आप नंगे होते तो हैं पर उसे स्वीकारते नहीं।

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