Friday, 24 August 2012

12 hours ago ·

मैं कोई कंक्रीट का जंगल तो हूँ नहीं
कि मेरे उग आने के पहले तुम मेरी हदें तय कर डालोगे
किसी की औकात नहीं, किसी की नहीं
जो मेरी खिड़कियों, रौशनदानों औ सीढ़ियों को तय करे
मैं कोई कंक्रीट का जंगल तो हूँ नहीं
कि मेरी दिवारों के रंग उनके बनाये जाने के भी पहले तय कर डालोगे।

मेरी कोमल पिघलती बर्फ सी जडें- किसी छैनि, हथौड़े की मोहताज नहीं
उनमें इतनी तो कूवत तो है ,मिट्टी हो या पत्थर, अपनी नींव तलाश ही लेगी
मेरी हर शाख, मेरा हर पत्ता, मैं जानता हूँ
मेरी असंख्य खिड़कियों, रौशनदान औ सीढ़ियाँ होंगी-रैन बसेरा भी
मै नित नवीन नव रंग भरा,नृत्य करा नव जीवन सिरजता, कलकल
बीज से बृक्ष की अनन्त यात्रा पर सदैव चलता ही रहूँगा-मैंने तय कर डाला

Sunday, 12 August 2012

कैसा हिसाब- किताब- कुछ तो है ही नहीं

अपनी बात आपसे कहूँ केसेऐ हर बात जो कहता हूँ ,वह सोची-समझी होती है ।जो बातें वास्तव में होती है वह कह नहीं पाता हूँ और जो कह पाता हूँ वह होती नहीं है।जो है वह और जो दिखती है वह- दोनों दो है। समझ में नहीं आता ऐसा क्यों- क्या है। दोनों कट बीच सामंजस्य कैसे स्थापीत करूँ। एक को साधता हूँ तो दूसरा दूर हो जाता है। ज्यों-ज्यों सत्य को साधने की कोशिश करता हूँ वह सच के मूल्यों के अलग दीखता है। अजीब सी बात है, सच के मूल्य सच को काँट- छाँट कर बने है। बालक जब जन्म लेता है वह सत्य के एकदम करीब होता है,क्योंकि सच का उस पर कोई आवरण ही नहीं होता। वह एकदम नंगा होता है।अनाम होता है। क्योंकि वह नंगा है इसलिये उसके पास छिपाने के लिये कुछ भी नहीं। वह अनाम है इसलियेउसे ईर्ष्या और द्वेष के लिये भी कुछ नहीं। दुनिया में आते ही सच पर भी आवरण पड़ जाते हैं- उसे ईर्ष्या-द्वेष के साथ जीने के लिये बाध्य कर दिया जाता है। बस यहीं से सारा घालमेल शुरू हो जाता है। सत्य की परिभाषा गढ़ी जाने लगती है। आईये देखें-यह कैसे होता है। जब मैं मर चुका होता हूँ तब मैं फिर एक लाश भर हो जाता हूँ और फिर मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुझे आग में जला दिया जाता है या अधेरी कब्र में दफना दिया जाता है।मरते के साथ मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मुझे ठंडे पानी से नहलाया जाये या गर्म पानी से। जब मैं पैदा हुआ था तब भी मेरे पास कोई पाकेट नहीं थी। पाकेट में ही न पर्स रखते हैं ।जब पाकेट ही नहीं तो पर्स भी नहीं और जब पाकेट और पर्स दोनों ही नहीं तो पर्स में रखने की ईच्छा भी नहीं। इसी प्रकार जब मैं लाश हो गया होता तब भी मेरे कफन में कोई पाकेट नहीं होगी। कफन भी नहीं हो तब भी मुझे क्या फर्क,नंगा तो मै था ही अब भी नंगा हूँ। जब मैं पेदा हुआ तब मुझे कोई शरम नहीं आई और जब मै मर गया होता हूँ तब भी मुझै कोई शर्म नहीं। यह शर्म या हया की जो बात आप करते हैं यही तो सच के उपर डाल दी गई चादर है। सचमुच वे कितने भाग्यशाली है जो एकदम नंगे रहने का साहस कार पाते है ।जो नंगा हो गया उसे किसी संग्रह की आवस्यकता ही नहीं है क्योंकि उसके पास पाकेट वाले कपड़े ही नहीं है, पर्स नहीं है,बक्सा नहीं है , बैक नहीं है , खाते नहीं है , मुनीम नहीं है और इसलिये नंगे को लोभ -असत्य की जरुरत नहीं । जो नंगा हुआ वह लोभ से परे हुआ और जो लोभ से परे हुआ वह अहंकार से परे हुआ। नंगा होने के बाद क्रोध का क्या काम।नंगे होने का एक ओर बड़ा फायदा है-आपकी आँखों मै भी कामदेवता का आगमन हुआ नहीं कि आपका नंगा शरीर आपके लाख छुपाये भी आपके अनदर उढ रहे काम आवेग की चुगली कर ही डालेगा। दिल-दिमाग में कहीं भी काम बसा नहीं कि शरीर में हलचल शूरू हुई और शरीर में हलचल शुरू हुई तो नंगा चूँकि मैं हूँ इसलियेुह हलचल आम हो जायेगी। सचमुच नंगापन काम पर विजय पाने का एक साधन तो है ही। और इसी काम पर पर्दा डालने का काम हम और आप कभी पत्तों से करते हैं, कभी कपड़ों से करते हैं, कभी धोती से तो कभी लंगोठी से- पता नहीं कैसे कैसे करते हैं। जितने भी आचरण हम और आप ओढ़ते हैं वह सब अपने अन्दर-बाहर के सत्य को छिपाने के लिये ढोंग रचते हैं।लोभ को छिपाने के लिये हमने दान का ढोंग रचा है। अहंकार को छिपाने के लिये विनम्रता का ढोंग , क्रोध को छिपाने के लिये प्रेम का ढोंग। हमने क्रोध शब्द को मइनस में डालकर प्रेम की रचना कर डाली। तापक्रम + में हो या माइनस में, है तो तापक्रम ही। उसी तरह प्रेम प्लस साइड हो या माइनस साइड- वह क्रोध का ही दूसरा रूप है। और जो नंगा है उसे न प्रे म की आवश्यकता है न क्रोध की। इसी प्रकार दान इसी लोभ का विलोम है। लोभ-दान, लोभ-त्याग, लोभ-अर्थ, लोभ-मोक्ष सब एक ही है, बाकी सारा सब्द जाल, आवेश के घनात्मक अथवा ऋणात्मक मात्र होने से पड़े ावरण को भुनाने का हमारा प्रयास। जो नंगा हो गया उसे न दान की जरूरत, न लोभ-त्याग की, न ही मोक्ष की। गांधी, ईशा मसीह,बुद्ध, महावीर, ऋषभदेव,बाहुबली,नागा सब नंगे हो चुके थे, इन्हें किसी आवरण की आवस्यकता नहीं रह गई थी अतएव इन्होंने जो कहा वह सत्य के बिल्कुल करीब था, सभी के करीब था पर मैं तो आपादमस्तक आवरण से ढका हूँ, सच से कोई सरोकार नहीं, जाने कब नंगा होने का साहे जुटा पाउँगा। वैसे एक बात कहूँ, यदि एक साथ और स्थाई रूप से आप नंगे नहीं हो सकते तब भी नंगे होने की आदत डालने का प्रयास तो आप-हम कर ही सकते हैं।टूकड़ों में नंगे होइये, समय पर नंगे होईये,आखिर नंगे होने का संस्कार तो पैदा किजीये। वैसे सच कहूँ, तो हम और आप सब नंगे होते हैं,बाथरुम में होते हैं, निवृति के समय होते हैं, प्रवृति के समय होते हैं, केवल अपने इस नंगेपन के स्वीकारते नहीं। जिस दिन हम इस नंगेपन को स्वीकार करने का साहस जुटा लेंगें उसी दिन और समय हम और आप सत्य के करीभ सार्थक रुप से पहुँच जायेंगें। काम बड़े काम की चीज है, यह बड़े -बड़े को नंगा होने को विवश कर देता है। काम की आंधी में आप नंगे होते तो हैं पर उसे स्वीकारते नहीं।

Friday, 3 August 2012

अनज़ान हमराही -कैसे जानूँ तुम्हे

क्या यह सही नहीं है कि हम आज भी एक दूसरे से पूरी तरह अनजान है। लगभग कोई पल ऐसा नहीं बीता होगा कि किसी बलखाती इठलाती लहर ने तुम्हारा जिक्र नहीं किया हो। हवा के हर झोंकें ने मुझे तुम्हारे बारे में बताया है। शायद तुम्हें भी बताया हो। वैसे मुझे तुम्हारे बारे में पता तो है। सदियों से साथ जो हमलोग रह रहे हें। मैं समझता हूँ तुम्हें भी मेरे बारे मे जानकारी होगी ही। आखिर मेर पास से भी खेल खाकर जाती लहरे मेरे बारे में तुम्हें कुछ तो बता ही जाती होगी। नहीं भी बताती हो तो भी जैसे मैं कयास लगा रहा हूँ, वैसे कयास तो लगा ही सकते हो। वेसे मैंने कयास से ही लिखा है- मैं सही सही नहीं जानता- यह सकता होना चाहिये या सकती। वैसे लहरों ने मुझे भी अपने बारे में कुछ पूरा पूरा नहीं बताया। एक तो उन्हें वक्त ही कहाँ, दौड़ते ,उछलते,कूदते आती है, मुझै उन में से सभी से मुलाकात भी तो नहीं होती, कभी -कभार दरश-परश भर ही तो होता है, पल भर भी तो नहीं ठहरती,असंख्य लहरें, और वे भी कभी स्थिर थोड़े ही रहती हैं, अल्हड़ ,बेफिक्र -निःशंक अनछुया निष्पाप निःश्छल बचपना सा इन लहरों का यह खेलना, कूदना वह भी मेरे आँगन में मुझे खशियाँ दे जाता है- पर सच यही है कि न उन्होंने मूझे पहचाना न मैंने, और भी अजीब यह है कि इन लहरों का मेरे साथ क्या रिश्ता है- मैं आज तक नहीं समझ पाया। वैसे रिस्ता मेरा तुम्हारे साथ भी क्या हो सकता है ,मैं नहीं समझ पाया। साथ साथ पैदा हुए,जुड़वाँ भाई हुए, लगातार साथ रहते आए हैं तब फिर भाई, पर हमारा साझा क्या है,हम आपस में मिलते क्यों नहीं, हममे यह दूरी क्यों--- य़े लहरें न मेरी न तुम्हारी, एक पल भी ठहर कर कभी हाल जो पूछा हो। पानी की दिवार हमारे बीच इन्हीं लहरों की सौगात है। पूछो तो न, लहरों को, एक बार भी कोइ सी भी भूळकर भी वापस जो आई हो।मदहोश,उमड़ती-घुमड़ती भागे जाती है। कभी जो रुकी हो। बेतहासा भागती ये लहरें पूरे वेग से मुझसे टकराती रहती है- तुम्हारा भी तो यही हाल होगा। कभी यह भी नहीं समझती कि यह मैं ही हूँ जो उन्हें आदर से आगे बढ़े देता है, न तो खेत- खलिहान, गड्ढ़े, ताल-तलैया उन्हे लीलने को तैयार बैठे हैं। वे तो इतनी उन्मत्त रहती हैं कि कई एक बार मेरा भी कहा नहीं मानती, मुझसे लड़ झगड़ का जिद्दी बच्चे की तरह पसर ही जाती है ।मुझसे ऐसे में उनकी दुर्दशा देखी नहीं जाती। निष्कलंक लहरों का मान मर्दन जब ताल-तलैया करते हैं-सरे आम ,तो पीड़ा होती है। कितनी ऐश्वर्यशाली लहरें हुआ करती थी,पहाडों से ऊमड़ती-घुमड़ती जा मिलती है समुद्र से। तुम्हारे हमारे सहारे ही न। क्यों ये अल्हड़ लहरें उतावली हो बहक कर लहरों से बाढ़ बनने को आतुर हो जाती है। सैलाब बन कर सितमगर की तरह हर जगह दुत्कार खाती ये लहरें- मुझसे नहीं देखी जाती। सच ही है, मर्यादा का उलंघ्घन केवल अपयश ही दे जाता है। मर्यादा और सतत संघर्ष बूंद को धार, धारा को लहर,लहर को नदी तथा नदी को समुद्र तक की यात्रा करने में मदद करते हैं।

Wednesday, 1 August 2012

Common piggiy vs VIP biggy

SIR, Most humbly and beggingly I am compelled to weep out as following----- Society serving law and Individual serving law - MACRO INTERPRETATION and micro serving law evaluation, Apparent substantial compliance taken as legally sufficient but when it comes to the biggies immediately changing scales of INTERPRETATION - iS IT FAIR ON THE PART OF LAW -BIGGIES ? Palkiwalas, why do not cry in court for millions of KADRA PAHADIYA ---- ? Ex ATTORNEY GENERALS why your wisdom works after a SIX or SEVEN FIGURES SAMARPAN-------? Bar Council Chairmans- Please- WHEN a nation wide strike of lawyers is called where is my fundamental right as a citizen to consult a lawyer of my own choice- or of being interrogated in the presence of my lawyer, or of being defended by a lawyer in a court of law or in a police station Sir, Whether your legal right or professional interest is really bigger then my FUNDAMENTAL RIGHT or THE HUMAN RIGHT Sir, no fundamental right has been declared dependent on any other professional save and accept Advocates professional service , and I have searched Advocates many a time in INDIA and I FOUND THERE IS TOTAL BREAK DOWN OF LEGAL SERVICE GRID OF INDIA because of ADVOCATES POWER GRID CORPORATION OF INDIA AND THAT THE ENTIRE JUSTICE DELIVERY MECHANISM IN INDIA HAS BEEN OFFERED A PAID NON WORKING DAY_ COURTESY ADVOCATES POWER GRID CORPORATION OF INDIA Sir , most painfully and respectfully I have to inform you that my Fundamental Right passed away the day when all the Judges did not work due to strike call by LAW_ BIGGIES. I have further to inform you that all these days the POLICE -BIGGIES , and BUREAUCRATIC -BIGGIES had thrown a GALA-MAXI- FREE FOR ALL MERRY MAKING PARTY but I could see it only from a lock up where I was given third degree in open view for 48 hours and then was paraded WIST TIED HAND CUFFED FOR A GRAM PANCHAYAT TRIABLE CIVIL MATTER Long live our PREAMBLE Sir, I am Your most low paying capacity Citizen of INDIAN DEMOCRACY