Saturday, 10 November 2012

कतरा कतरा ओस की बूँदें, सागर बनती जाती है
ढलके ढलके आँख के आँसु, कविता बनती जाती है।

आती जाती साँस दर साँसें, जीवन बनती जाती है,
एक एक बूंदें उपर उठती, बरखा बन कर आती हे।

किरणों  की सीढ़ी चढती, यह धूप उतरती आती है,
तारों सजी एकचादर ओढ़े,मदमस्त वह छा जाती है।


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