Friday, 16 November 2012

बरसना क्या, क्यों---

बरसने के लिये किसी खास तैयारी की जरूरत नहीं पड़ती।जब भी बरसने के लिये तैयार हो जाओ, बरसा जा सकता है।
मेरे साथ पढ़ रहे विद्यार्थियों के बीच,मेरे से बहुत बड़ों के बीच, स्कूल-कालेज के विद्यार्थियो के बिच,बै।क पदाधिकारियों के बीच, विधि-विशेषग्यों के बीच, ओर न जाने कितनों के बीच बिना किसी तैयारी के बरस जाया करता था। कई बार यह भी जानता था कि मेरा बरसना सभी के लिये हर समय सुखद  अथवा उचित या यथेष्ट नहीं होता है।

बरसने का भी समय होता है। बरसने की मात्रा होती है। समय से बरसा ही बरसा माना जाता है यद्यपि कि ऐसा सदैव होता नहीं। मात्रा उचित ही ठीक रहती है, पर यह भी सदा वैसी रह कहाँ पाती है।

गाँवों में कहते हैं- खपड़ा पड़पड़ाया था, अर्थात धूप से तपे हुए खपड़ैल वालेछत पर दो चार बूँद पानी पड़ा। धूल मुए भर पानी,ओलती चले भर पानी,माटी लगे भर पानी,हाल भर पानी,लेव भर पानी, खाता आवे भर पानी, आहर भरे भर पानी,भवह खुले भर पानी, बरसते के ये भारतीय ग्रामीण मात्रक है।

मैं बरसने से कभी नहीं डरा, पहले भी नहीं, आज और अब भी नहीं। बरसने से डर कैसा।

बस, बरसने से आदमी और बादल दोनों नंगा हो जाते हैं। पर नई सृष्टि भी इसी से जन्म लेती है।

बरसने के ठीक पहले अनन्त उँचाइयाँ होती है, और ज्यों ज्यों उँचाइयाँ उपर की ओर बढ़ती हैबरसने वाला जानता है कि वह  अब बरस चला। यद्यपि की वह स्वयं को उँचाइयों की ओर जाता देखता है पर वह जानता है कि वह अब बरस चला। हर बादल, जीव उँचाइयों पर जा कर बरसेगा ही, बरसे बिना रह ही नहीं सकता, चाह कर भी नहीं।

गहन रात्रि का समय, गहन अन्धकार,श्मशान का घाट, आँधी, तूफान  प्रचण्ड वेग से चल रहे हैं,चारों ओर चिताएँ जल रही है। भयंकर आँधी-तूफान में भी चिंता और चिता की आग जला करती है। परिजन वियोग में  विलाप , करूण क्रन्दन,अन्धेरे का और दारूण बना रहे हैं। ऐसे में लगभग नंग -धड़ंग एक चान्डाल सेवक एक असहाय महिला के कंधै पर से उसके जवा बेटे के शव से लाश का  आंतिम  अधोवस्त्र छीन रहा है। कल्पना किजीये उस दृश्य की।भयानक रस, रौद्र रह, करुणा रस, विभत्स रस ,सभी की पराकाष्ठा है, और ठीक इसी विन्दु पर एकाएक सारे देव स्वर्ग से पुष्प-वर्षा करने लगते हें। बरसना कुछ ऐसा ही होता है।

रात्रि का गहराता अन्धकार आकिर कितना गहरायेगा।

अंधकार की पराकाष्ठा ही प्रातः का आह्वान है।

भरते जाना बरसने की ओर प्रस्थान है।

सुबह की प्रतिक्षा मैरात्रि का तीसरा प्रहर भी प्यारा लगने लगता है।

जन्म लेने वाले शिशु की किलकारियों की ललक मै ही माँ प्रसव की सारी पीड़ा भोग ले जाती है।

पर शायद मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ। या हुआ भी हो तो मैं उसे समझ नहीं पाया। समझने की कोशिश आज तक कर रहा हूँ। शायद इसी समझ की कमी के कारण अपने अनुभवों को सागोपांग वर्णन  नहीं कर पा रहा हूँ। वैसे मैं समझता हूँ ओर मैंने पहले भी लिखा है कि पचास साल से उपर की जीवन यात्रा के साथ न्याय-पूर्ण व्यवहार कर पाना सदैव संभव नहीं होता। चालिस -पचास साल के अन्तराल में कितने अनुभव आ चुके होते हैं,उनमें से कुछ पूर्वाग्रह बन चुके होते हें, कुछ पूर्व की पीढ़ियों के पूर्वाग्रह जो पहले से बीज रुप मैं थै, उन्हे अंकुरित कर देते हैं। बुद्धि अपना प्रपंच फैलाती है। कथ्य या अकथ्य, मर्यादा या संकोच का ढोंग होता है

समझ में नहीं आता हम-आप के पास एक-दूसरे से छिपाने के लिये क्या है। हम  और आप मौलिक रूप से एक ही हैं। फिर हम-आप,हर व्यक्ति एक दूसरे से छिपते -छिपाते क्यों भागे जा रहा है। क्यों नहीं हम जैसे हैं वैसे ही एक दूसरे के सामने हो जाते हैं।

हम हमाम मे ही नंगे क्यों होते हैं।एक दूसरे के सामने आने के पहले हमेंकोट-टाई,जूता-मोजा, जाँघिया-ब्रा  की जरूरत क्यों पड़ने लगती है। हर आदमी दूसरे के सामने नेकटाई-बोटाई, हैठ-टोपी, अचका, गुलाब का फल पारकर पेन, नेकलेस, ब्रेसलेट आदि मैं ही क्यों जाना चाहता है।य़ह सब आवरण क्यों।
 

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