Sunday, 25 November 2012

हाँ या नहीं

वस्तुतः हिन्दुस्तान में एक पूरी की पूरी पीढ़ी बिना जिम्मेवारी के जीने की अभ्यस्त हो चुकी है । उनका बस चले तो वे साँस भी दूसरे के भरोसे लें ।
हिन्दुस्तान ही क्यों, पूरे विश्व में काम करने वालों के नाम पर काफी हल्ला गुल्ला होता है।श्रमिकों के नाम पर पूरा का पूरा वर्ष मनाया जाता है । पूरी की पूरी एक विचार- धारा है,पर किसी को किये के फल, सुफल या कुफल या असफल की चिन्ता नहीं। ऐसी पूरी पीढ़ी समाज के लिये खतरा बन जाती है।
आप धनी लोगों से घृणा करते हैं, पर स्वयं धनी बना चाहते हैं।आप धन से घृणा नहीं करते। आप संपत्ति में बँटवारा चाहते हैं,आप लाभमें हिस्सा चाहते हैं, सनृद्धि में हक जताते हैं।
कभी सोचा, लाभ आया कैसे,धन बना कैसे,सनृद्धि आयेगी कैसे। धन रहेगा तब ना बँटवारे की बात उठेगी। धन या धनी रहेगा ही नहीं तो--------।
आपने शहद देखा है। मधुमक्खियों के छत्ते भी देखे ही होंगें। कैसे लगेगा जब दिन रात मिहनत कर रही इन  असंख्य मधुमक्खियों को कहा जाये कि  इन्होंने बगीचे के फूलों का शोषण किया है। फूलों से पूछिये तो सही इन मधुमक्खियों, तितलियों, भौंरौं ने इन्हें क्या दिया है। इन्हीं मधुमक्खियों, तितलियों, भौंरौं ने फूलों में बीज पैदा होने की प्रक्रिया में अपना योगदान दिया है। फूलों को मुस्कुरना सिखया है। किसी वनस्पतिशास्त्री से पूछिये,ये शहद की रचना करने वाली मधुमक्खियों का इन फूलों के जीवन में कितना योगदान है।
फिर एक बार सावधान  होकर सोचिये।आपने शहद देखा है। मधुमक्खियों के छत्ते भी देखे हैं। मधुमक्खियों का आते जाते भी देखा है। पर शहद  लेकर आते जाते  उड़ते कभी किसी मधुमक्खी को देखा है। मधुमक्खियाँ फलों के जीवन का अभिन्न अंग है।प्रकृति में सभी कुछ परस्पर जुड़ा, संबंधित , आश्रित होता है। मधुमक्खियाँ  की सतत मिहनत तथा फलों का सतत जीवन क्रम ही शहद की पूर्व शर्त है, परस्पर सहज स्वरूप है। शहद के निर्माण का यहि प्राकृतिक नियम है- परस्पर आश्रय, शोषण के लिये कोइ स्थान नहीं।


Friday, 23 November 2012

मायाजाल प्रश्नों का

प्रश्न बड़े यायावर किस्म के रंगबाज होते है। एक तो सारे के सारे प्रश्न हमारे सामने एक बार में  आते नहीं ।कई बार प्रश्न एकाएक खड़े हो जाते है कि उन्हें समझने तक का समय नहीं मिलता। प्रश्न क्या गुरिल्ला पद्धति से पैदा होते हैं कि ये छिपते हुए चलते हैं, और कई बार रक्तबीज की तरह बढ़ते ही चले जाते हैं, एक के बाद एक, एक के साथ अनेक,अनेकों के साथ अनेक, कई एक बार एक से दिखने के बाद भी अलग अलग, और अनेकों बार घलग -अलग से दिखने के बाद भी मूल रूप में एक। प्रत्येक प्रश्न की कद, काठी अलग ,वजन  अलग, प्राथमिकता अलग, स्वाद अलग  समाधान, निराकरण अलग। लगता है,प्रश्नों की एक अलग ही दुनिया होती है- पहेलीनुमा दुनिया, कुछ भी सीधा-सपाट नहीं। प्रश्न स्वयंभु लगते हें।आत्मज प्रकृति के हैं।बेलाग उठते -बैठते है, न जाने कब किसके पीछे लग जायें । इनमें अपने आप घटने बढ़ने की अद्भुत छमता अन्तर्निहित होती है। कभी कभी ये अचानक दुबक से जाते हें, हम सोचते हें -चलो पीछा छुटा,पर ये भला कब मानने वाले - चट से यहाँ नही तो वहाँ हाजिर, कई बार तो हू बहू उसि रूप में।   प्रसश्नों को आतिथ्य सत्कार सभी लोग अलग -अलग ढंग से करते हैं ।

मेरे प्रश्नोंकी आवभगत मेरे विरोधी खूब करते हैं। ये प्रश्न भी जब ना तब जा कर मेरे पड़ोसियों के यहाँ झाँकी मारते रहते हैं। पता नहीं, इन्हें वहाँ क्या मजा मिलता है। कई बार तो इनका जन्म भी वहीं हो जाता है- मेरे प्रशनों का कुनबा  मेरे पडोसियों के यहाँ अधिक फलता फूलता रहता है।

Friday, 16 November 2012

बरसना क्या, क्यों---

बरसने के लिये किसी खास तैयारी की जरूरत नहीं पड़ती।जब भी बरसने के लिये तैयार हो जाओ, बरसा जा सकता है।
मेरे साथ पढ़ रहे विद्यार्थियों के बीच,मेरे से बहुत बड़ों के बीच, स्कूल-कालेज के विद्यार्थियो के बिच,बै।क पदाधिकारियों के बीच, विधि-विशेषग्यों के बीच, ओर न जाने कितनों के बीच बिना किसी तैयारी के बरस जाया करता था। कई बार यह भी जानता था कि मेरा बरसना सभी के लिये हर समय सुखद  अथवा उचित या यथेष्ट नहीं होता है।

बरसने का भी समय होता है। बरसने की मात्रा होती है। समय से बरसा ही बरसा माना जाता है यद्यपि कि ऐसा सदैव होता नहीं। मात्रा उचित ही ठीक रहती है, पर यह भी सदा वैसी रह कहाँ पाती है।

गाँवों में कहते हैं- खपड़ा पड़पड़ाया था, अर्थात धूप से तपे हुए खपड़ैल वालेछत पर दो चार बूँद पानी पड़ा। धूल मुए भर पानी,ओलती चले भर पानी,माटी लगे भर पानी,हाल भर पानी,लेव भर पानी, खाता आवे भर पानी, आहर भरे भर पानी,भवह खुले भर पानी, बरसते के ये भारतीय ग्रामीण मात्रक है।

मैं बरसने से कभी नहीं डरा, पहले भी नहीं, आज और अब भी नहीं। बरसने से डर कैसा।

बस, बरसने से आदमी और बादल दोनों नंगा हो जाते हैं। पर नई सृष्टि भी इसी से जन्म लेती है।

बरसने के ठीक पहले अनन्त उँचाइयाँ होती है, और ज्यों ज्यों उँचाइयाँ उपर की ओर बढ़ती हैबरसने वाला जानता है कि वह  अब बरस चला। यद्यपि की वह स्वयं को उँचाइयों की ओर जाता देखता है पर वह जानता है कि वह अब बरस चला। हर बादल, जीव उँचाइयों पर जा कर बरसेगा ही, बरसे बिना रह ही नहीं सकता, चाह कर भी नहीं।

गहन रात्रि का समय, गहन अन्धकार,श्मशान का घाट, आँधी, तूफान  प्रचण्ड वेग से चल रहे हैं,चारों ओर चिताएँ जल रही है। भयंकर आँधी-तूफान में भी चिंता और चिता की आग जला करती है। परिजन वियोग में  विलाप , करूण क्रन्दन,अन्धेरे का और दारूण बना रहे हैं। ऐसे में लगभग नंग -धड़ंग एक चान्डाल सेवक एक असहाय महिला के कंधै पर से उसके जवा बेटे के शव से लाश का  आंतिम  अधोवस्त्र छीन रहा है। कल्पना किजीये उस दृश्य की।भयानक रस, रौद्र रह, करुणा रस, विभत्स रस ,सभी की पराकाष्ठा है, और ठीक इसी विन्दु पर एकाएक सारे देव स्वर्ग से पुष्प-वर्षा करने लगते हें। बरसना कुछ ऐसा ही होता है।

रात्रि का गहराता अन्धकार आकिर कितना गहरायेगा।

अंधकार की पराकाष्ठा ही प्रातः का आह्वान है।

भरते जाना बरसने की ओर प्रस्थान है।

सुबह की प्रतिक्षा मैरात्रि का तीसरा प्रहर भी प्यारा लगने लगता है।

जन्म लेने वाले शिशु की किलकारियों की ललक मै ही माँ प्रसव की सारी पीड़ा भोग ले जाती है।

पर शायद मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ। या हुआ भी हो तो मैं उसे समझ नहीं पाया। समझने की कोशिश आज तक कर रहा हूँ। शायद इसी समझ की कमी के कारण अपने अनुभवों को सागोपांग वर्णन  नहीं कर पा रहा हूँ। वैसे मैं समझता हूँ ओर मैंने पहले भी लिखा है कि पचास साल से उपर की जीवन यात्रा के साथ न्याय-पूर्ण व्यवहार कर पाना सदैव संभव नहीं होता। चालिस -पचास साल के अन्तराल में कितने अनुभव आ चुके होते हैं,उनमें से कुछ पूर्वाग्रह बन चुके होते हें, कुछ पूर्व की पीढ़ियों के पूर्वाग्रह जो पहले से बीज रुप मैं थै, उन्हे अंकुरित कर देते हैं। बुद्धि अपना प्रपंच फैलाती है। कथ्य या अकथ्य, मर्यादा या संकोच का ढोंग होता है

समझ में नहीं आता हम-आप के पास एक-दूसरे से छिपाने के लिये क्या है। हम  और आप मौलिक रूप से एक ही हैं। फिर हम-आप,हर व्यक्ति एक दूसरे से छिपते -छिपाते क्यों भागे जा रहा है। क्यों नहीं हम जैसे हैं वैसे ही एक दूसरे के सामने हो जाते हैं।

हम हमाम मे ही नंगे क्यों होते हैं।एक दूसरे के सामने आने के पहले हमेंकोट-टाई,जूता-मोजा, जाँघिया-ब्रा  की जरूरत क्यों पड़ने लगती है। हर आदमी दूसरे के सामने नेकटाई-बोटाई, हैठ-टोपी, अचका, गुलाब का फल पारकर पेन, नेकलेस, ब्रेसलेट आदि मैं ही क्यों जाना चाहता है।य़ह सब आवरण क्यों।
 

Saturday, 10 November 2012

कतरा कतरा ओस की बूँदें, सागर बनती जाती है
ढलके ढलके आँख के आँसु, कविता बनती जाती है।

आती जाती साँस दर साँसें, जीवन बनती जाती है,
एक एक बूंदें उपर उठती, बरखा बन कर आती हे।

किरणों  की सीढ़ी चढती, यह धूप उतरती आती है,
तारों सजी एकचादर ओढ़े,मदमस्त वह छा जाती है।