राहें
हरदम टुकड़ों मे बँटी होती है जिनका अपना कोई ठौर नहीं होता, यह तो
किटकिटाते दाँत, तनीं मुठ्ठियाँ, सूजे फफोंलेदार तलवे और थकती हुई पर थकी
हुई नही - हथलियों का कमाल है जो पुलिया दर पुलिया बनाते,पहाड़ काटते
टुकड़े दर टुकड़े रास्तों को जोड़ कर नदी-नालों-समंदर के पार तक पहुँचा
डालते हैं-- और हम इन्हें मंजिल कहते हैं
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