जी, १९८८ का मामला है। एक हत्या के मुकदमे में एक रिटायर्ड जज को कोर्ट ने अभियुक्त की ओर से सरकारी खर्च पर वकील नियुक्ति का प्रस्ताव किया।
रिटायर्ड जज जो अब वकील थे ने अपनी उम्र और व्यस्तता का हवाला दिया।
कोर्ट ने कहा आपको अधिक परेशानी नहीं होगी। भरे कोर्ट में मेरा नाम ले कहा कि यह युवक आपको असिस्टेंट के रूप में सहयोग करेगा।
में भी उत्साहित हुआ।
काम बड़े मनोयोग से किया।
एक विधवा युवती ने अपने प्रेमी के साथ अपने युवा देवर की हत्या के दी ऐसा बताया गया था, देवर को धक्का देते ग्रामीणों ने देखा, वहीं पकड़ा और युवती और उसके प्रेमी ने ग्रामीणों को सारी बात बताई। थोड़ी देर में पुलिस आईं और अंत में सेशन ट्रायल। हम लोगों ने कोशिश की। अंततः मुकदमे में विचरण न्यायालय में सजा हुई।
जिस दिन सजा हुई उस दिन जिस भी कोर्ट में गया तो जज ने कहा कि बिना मिठाई के आप की बहस नहीं सुनेंगे।मैं परेशान। थोड़ी देर में ट्रायल कोर्ट में सजा पर बहस के लिए बुलाया गया। जज साहब सुने और आजीवन कारावास की सजा सुना चेंबर में चले गए । आदेश दिया कि फैसले की कॉपी जेल , अभियुक्त, सीनियर डिफेंस वकील के अलावा मुझ को भी दी जाए।
कुछ समझ में नहीं आया।
इजलास पर फैसला लेने पहुंचा तो फिर वही मिठाई।
मैंने कहा भाई में तो मुकदमा हारा हूं, मुझसे मिठाई क्यों मांगते हो।
टेबल पर आया। उत्सुकता वश जजमेंट का अंतिम पोर्शन देखा। अवाक रह गया।
जज साहब ने जजमेंट के अंत में पूरा एक पैरा मेरे बारे में लिखा।
ट्रायल कोर्ट में ऐसा लिखा जाता है, न देखा था, न सुना था। भागा भागा रिटायर्ड जज के पास गया। उन्होंने आशीर्वाद दिया पर वहीं मिठाई।
मुझे लगा कि कहीं यह अनावश्यक कृपा तो नहीं।