भारतीय बुद्धिजीवियों का भी बस इतना सा फ़साना है, धृतराष्ट्र की तरह या तो उन्हें दिखाई नही देता या गांधारी की तरह देखने का प्रयास ही नहीं करते या फिर भीष्म की तरह अपनी प्रज्ञा को अपनी प्रतिबद्धता के खूंटे से बांध कर सत्य का चीरहरण देखते रहते है। रोटी की खातिर , अपनी विचारधारा की खातिर अपनी चेतना, अपनी प्रज्ञा को रहन रख देते है और मुंह में रोटी दबाये इधर-उधर फुदकते रहते है।
प्रतिबद्धता और स्वार्थ के चलते भारतीय बुद्धिजीवी हमेशा पलायनवाद से लेकर रागदरबारी होने के बीच झूलता रहता है। यही कारण है इस देश में हर घटना रंगीन चश्मे से देखी गयी , यहाँ तक की देश का इतिहास भी अपने अपने चश्मे से गड़ा गया है। महापुरुषों को भी हमने अपनी राजनैतिक सोच के चलते बाँट लिया है, उनके त्याग और बलिदान को भी हम तभी स्वीकारते है जब वे हमारी राजनैतिक सोच के रंगीन चश्मे में फिट बैठते है।
इस देश में बुद्धिजीवी होने का पहला गुण तो यही है कि “खुद चाहे कुछ न करूँ, पर दूसरों के काम में दखल जरूर दूँगा ।” दूसरा गुण है कि ईमान को एक फोल्डिंग कुर्सी की तरह उपयोग में लाया जाय , मौका मिला तो फैला कर बैठ गये अन्यथा टिका दिया किसी कोने में।(3)
फिर वह बुद्धिजीवी ही क्या जो अपनी सुविधानुसार बात को न तोड़े-मरोड़े। बस इसीलिए धर्मनिरपेक्षता को भी अपनी सुविधा से परिभाषित कर लेते है। उनके अनुसार आतंकवाद कोई धर्म नहीं होता मगर गुंडागर्दी में वे धर्म देख लेते है। मॉब-लिंचिंग पर लम्बे चौड़े पत्र लिखने वाले, नन द्वारा पादरी के खिलाफ लगाए गए आरोपों पर चुप्पी साध लेते है। २०१२ में मुंबई में आज़ाद मैदान में महिला पुलिस कर्मियों के साथ हुई आतताई गतिविधियों पर मौनी बाबा बन जाते है।
फिर उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी की परिभाषा भी अनूठी है। MF हुसैन अगर देवियो की नग्न तस्वीर बनाये तो भारतीय बुद्धिजीवी को उसमे अभिव्यक्ति का सौंदर्य नज़र आता है , मगर इन बुद्धिजीवियों ने हुसैन से यह कभी नहीं पूछा कि उन्हें ( हुसैन को) यह सौंदर्य मोहम्मद साहब में क्यों नहीं दिखा या उनके अपने परिवार की महिलाओ में क्यों नज़र नहीं आया? (4)