Friday, 5 October 2012

लिये दिये का हिसाब क्या करना- फिर भी खाता बही तो दिखाना ही है

जीवन में बहुतों से बहुत कुछ लिया है।
 जो कुछ बन पड़ा, जैसा बन सका देने की इमानदार कोशिश तो की ही है, दे सका या नीं इसका आकलन तो मै कर नहीं सकता।
जो लिया है वह तो देना ही है, जितना लिया है उससे मुट्ठी भर  अधिक देना है। नहीं दे सकूँगा तो नहीं लूँगा।  नहीं  लेने पर गालियाँ दोगे तो वह भी लूँगा पर कुछ भी लेने के पहले सोचूँगा कि क्या मै इसे वापस कर सकता हूँ।
पर,वैसे निश्चिन्त रहिये, न जाने क्यों ,गालियाँ वापस करने का मेरा दिल नहीं करता और गालियाँ मैं शायद आपको वापस नहीं ही करूं। मिली गालियाँ मुझे मिला उपहार है। मैं उनको आपको वापस नहीं करूँगा। वेसे सच कहूँ तो ये उपहार स्वरूप मिली गालियाँ कभी-कभी तनाव का कारण बनती है। इन्हें कहाँ रखूँ, कहाँ छिपाउँ,किसी को दिखा तो सकता नहीं, बता भी नहीं सकता और जिसकी है उसे वापस करने का तो प्रश्न ही नहीं, कारण ही नहीं। कहीं ईधर उधर फेंक दिया तो बौरा कर फूलने फलने लगी तो और आफत।कई बार ऐसा भी हुआ कि लोग-बाग आपनी दी हुई गाली वापस माँगने आये पर मैं उन्हें उन्हीं के द्वारा दी गई गालियाँ वापस नहीं कर सका। उन्होंने अनुनय किया, विनय किया, मनुहार की पर मैं पहले दर्जे के कंजूस की तरह  उन्हें उन्हीं की दी गालियाक्ष वापस नहीं कर सका। टिपीकल भातीय कारपोरेट हाउसेस की तरह जो बैंको से कर्ज लेते तो हैं पर नादहिन्दे कर्ज कभी वापस लौटाते नहीं सुना। वैसे मैनें इन गालियों को कभी कर्ज नहीं समझा, वे उपहार हैं, मैं उन्हें लौटाने की लेशमात्र भीइच्छा नहीं रखता- उपहार समझता हूँ और उपहार कहीं  लौटाया जाता है।